Sunday, January 3, 2016

बचपन के दिन

वो बचपन के दिन आज फिर याद आये है
सोचा कागज़ पर उतार दू उन पलो को। फिर न जाने कब याद आये वो हँसी लम्हे।

बेखिर, बेसुध होकर जब; हम अपने रास्ते  चुनते थे
ना परवाह थी किसी की, ना करते थे काम जब दूसरो को दिखाने के लिए जब करते थे काम अपनी खुसी के लिए
वो बचपन के दिन आज फिर याद आये।

वो बिना बात का लड़ना झगड़ना, वो फिर पल भर में मनाना, नखरे दिखाना।
वो मासूम चेहरा, वो तेज़ भरी आखें,
वो उमंग भरे दिन, वो निडर निर्भय होंसला,
वो दिल से हँसना , दिल से रोना, वो सूरज को देख के आंखें झिमझिमाना ,
वो बचपन के दिन आज फिर याद आये।

पिताजी की डॉट, माँ की मार और दादा दादी का प्यार,
सुबहें सुबहें उठना- अँगडाई  लेके न उठने के बहाने बनाना,
हर दिन नया जोश,नयी उमंग,नया सीखना
दोस्तों से चिड़ना चिड़ाना, फिर मिल के खेल सजाना,
वो सारे पल आज फिर याद आये।
वो बचपन के दिन आज फिर याद आये।

यही सोचता हूं अब ,
की कल भी आज जैसा ही होगा, ना नयी उमंग ना नया जोश ना कुछ नया सीखना,
ना पिताजी की डॉट, ना माँ की मार, सिर्फ फ़ोन में नमस्ते - प्रणाम और घर जाने की आस।
ना सूरज को देख आखें झिमझिमाना , और ना बिना मतलब की बात पे हँसना,गम मनाना,
ना दिल से कुछ करना, ना निडर निर्भय होना,
खुद को निचा  करने की आदत सी हो गयी है अब, तनहा रहकर खुस रहने की आदत सी हो गयी है अब,
मतलबी चेहरा रहता है सारे दिन क्योंकी सच कड़वा लगने लगा है अब,
अब वो रूठना मनाना भी नहीं होता, अब वो  चिढ़ना-चिढाना भी नही होता ; नही होता मिल के खेल सजाना
वो बचपन के दिन आज फिर याद आये।

हिमाँशु

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